Wednesday, March 27, 2013

पहचान




(वोयेजर द्वारा करीब ६ खरब किलोमीटर दूर से ली गयी पृथ्वी की तस्वीर) 

पहचान 

विस्तृत अंतरिक्ष के  
एक दीप्त आकाशगंगा में
कण भी नहीं, कण के अंश जैसा
यही है पहचान अपनी धरती की 
और फिर इस वसुधा के
चौरासी लाख योनियों में
एक हम हैं, सोचो अपनी पहचान!

वही पहचान जिसके लिए
हम आप आज खड़े है
अपने झंडों के साथ 
जोरदार आवाज़ के साथ
बिना सोचे एक पल
डायनासोर का क्या हुआ?

भारी भरकम डायनासोर
जो अपने समय में लड़ता होगा
आपस में और तुच्छ जीवों के साथ
लेकिन समय का चक्र
ढाल गया उसे मिटटी-पत्थर के अन्दर
और साथ में  उसकी पहचान

 लेकिन हम आप  होकर अनभिज्ञ
लगे हैं एक दूसरे को परास्त करने
एक दूसरे के रास्तों में गड्ढा खोदने
अपनी ज़िन्दगी खोकर, पर-पीड़ा के लिए 
ये जानते हुए कि हम सबका
आखिरी ठिकाना एक  है

वही ठिकाना जहाँ पर  जीवाणु-विषाणु
ऑक्सीकरण-अवकरण साथ मिल  
ढाल जाते हैं  हमें एक सांचे में
जहाँ ना ख़म, ना जंघा, न ग्रीवा
और पत्थर मिटटी के दरम्यान
परतों में गुम होती है हमारी पहचान.

(निहार रंजन, सेंट्रल, १६ मार्च २०१३)

Saturday, March 23, 2013

फागुनी संवाद

मेरे गाँव में देवर और भाभी के बीच फाग-लड़ाई की साल भर प्रतीक्षा होती है. ये संवाद उसी पृष्टभूमि में है. सभी मित्रों को होली की हार्दिक शुभकामनायें.


अगले बरस 


बोल-बोल मो से देवर अबरबा !

फागुन बीता-बीता जाए
तोरी कोई खबर ना आई
का संग खेलूँ होरी मैं अब
का संग करू मैं फाग-लड़ाई

बोल-बोल मो से देवर अबरबा !

आज बता दे नाम तू उसका
जो रोके है मो से तुझको
कौन फिरंगी प्रीत के डोरे
फेंक के तुझको फांस ले जाई

बोल बोल मो से देवर अबरबा !

हम देते ललकारा तो से
अपनी सारी बहिनन के संग
देखें कौन मधुपुर से आके
तोहे  चीर-हरण से बचाई

बोल-बोल मो से देवर अबरबा !
 ...................................................
का मैं बोलूं तों से भौजी
अपने अंतर्मन की प्यास
साल चौदहवां बीत रहा है
लगता है जैसे एक वनवास

ना मुझपे है फिरंगी की डोरी
है सच पर, है एक मुझे प्रीत
जिसके लिए मैंने साल गुज़ारे
कैसे छोडूं अधूरा वो गीत

लेते है ललकारा हम सब
लेकर कुछ “कैफ़ी” के गुण
अगले बरस आपके नैहर में
“इश्क बाटेंगे, जितना है हुस्न”

(निहार रंजन , सेंट्रल,  २२ मार्च २०१३ )

* मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी जब १९९० के दशक में करांची गए थे तो वहां के लोगों से उन्होंने कहा था
" ये मत समझना  हम खाली हाथ आये हैं
  हैं जितना हुस्न इस बस्ती में हम उतना इश्क लाये हैं "

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अबरबा = आवारा
भौजी = भाभी
मधुपुर = मथुरा 

Friday, March 15, 2013

प्यार की वैज्ञानिक कविता

प्यार की वैज्ञानिक कविता
स्मृति के चुम्बक पर
बारहा लौट आते हो
लौह दिल के मालिक
यास दिए जाते हो

मन नाभिक के पास   
इलेक्ट्रान बने घूमते हो
आतंरिक कक्षा में बने
ना समीप ना दूर होते हो
क्यों मेरे ह्रदय कक्ष में
असीर हुए जाते हो
लौह दिल के मालिक
त्रास दिए जाते हो

अम्ल दग्ध मैं हुई हूँ
क्षार क्षरित मैं जियी हूँ
लवण की है चाह मुझको
लावण्यता समेटी खड़ी हूँ
मन में सान्द्र गंधकाम्ली
तासीर दिए जाते हो
लौह दिल के मालिक
प्यास दिए जाते हो

कब सुनोगे बाबूजी! संभालो
जरा  प्रेम-टीलोमर बचालो
प्यार के इस कोशिका को
एक नया जीवन दिला दो
इस बिरहन राधिके को
पीर दिए जाते हो
लौह दिल के मालिक
रास किये  जाते हो

(निहार रंजन, सेंट्रल, १२ मार्च २०१३)

नाभिक =  Nucleus
आतंरिक कक्षा = Core shell
सान्द्र = Concentrated
गंधकाम्ल = Sulfuric acid  ( Besides being an acid, it is also a strong dehydrant).
टीलोमर = A repeat sequence of DNA bases found  at the chromosomal ends. It gets shortened after every cell division. A cell dies when the  telomere gets really short.
कोशिका = cell.

Saturday, March 9, 2013

सोचो नदियाँ क्या कहती है!

सोचो नदियाँ क्या कहती है!


चलती रहती वह हर क्षण अपने पथ पर
हर तृषित का करती है वो रसमय अधर
पावस शरद की परवाह नहीं करती है वो
उत्तुंग शिखर से च्युत हो आह नहीं करती है वो
बेहैफ धरा पर चाल लिए वो अमलारा
कल-छल-कल-छल बढती जाती उसकी धारा
निरुद्येश्य क्या वो यूँ ही चलती है ?
सोचो नदियाँ क्या कहती है!

हिमगिरि की अप्रतुल सुन्दरता तज बढ़ जाती अकेली
उद्भव से अपने जीवन में पाती है राहें पथरीली
चट्टानों से मिलते जुलते गिरते उठते हिलते
निर्जन जंगल में नाद किये बढ़ते चलते
कांचनार और खार से निःसंकोच करती अभिसार
जलचर थलचर और नभचर को देते प्यार
धरती पर हमसे मिलने आ जाती हैं   
सोचो नदियाँ क्या कहती है!

वह नहीं मांगती मूल्य प्यास बुझाने की
वो नहीं करती है रार अजसी हो जाने की
ईश्वर अभिदत्त अमलता वो लिए हुए
वर्णों योनि में बिना कोई विभेद किये
जो बटोही आ जाता प्यासा उसके तीर
हरदम हाजिर रहती है वो लिए विपुल नीर
जलधि मेल को अविरत चल बढ़ जाती है
सोचो नदियाँ क्या कहती है!

सोचो हम तुम जीवन में बिन त्याग किये
निश्छल, निर्लोभी हिय बिन परमार्थ किये
अवरोधों से दुबक, छोटे गलियारों से निकल
बिना पिये जीवन में थोड़ा सा काराजल
सागरमाथा चढने को रहते हम अधीर
बिन त्यग्जल तजे बने जाते है वाग्वीर  
पर नदियाँ क्या सहती है, कुछ कहती है?
सोचो नदियाँ क्या कहती है!

दुर्गम सी अपनी राहें भी हो तो चलते जाओ
और जो मिले पंथ में प्रेम उसे देते जाओ
द्वेष लिए मन में, लिए अथाह स्वार्थ
नाहक न जियो मनुज जीवन अपार्थ
पिया (सागर) मिलन को इकलौता लक्ष्य मान
चलते ही रहना जीवन में करते उत्थान
सन्देश यही देती हमे वहती है
शायद  नदियाँ  यही कहती है!

(निहार रंजन, सेंट्रल, ९ मार्च २०१३)

Friday, March 1, 2013

गर्भवती




गर्भवती 



सुबह अपनी प्रयोगशाला पहुँचा 
तो अपने नियत स्थान से "शिकागोवाली" गायब थी 
बस्ता रखा और  अपने घुलते रसायनों  को परखने लगा  
 अचानक "शिकागोवाली" चहकती लैब में दाखिल हुई
स्पैनिश में चहक चहक बतियाती रही 
और मैं अपने काम में निमग्न हो गया 

अचानक किसी ने पीठ  छुआ 
देखा "शिकागोवाली" गले में मास्क लटकाए खड़ी है 
मुस्कान बिखेरते पूछती है-बोलो मैं खुश क्यों हूँ ?
मैंने मज़ाक में कहा, तुम तो "मामासिता" हो 
किसी ने तुम्हारी खूबसूरती पर कविता लिखी होगी 
वो हंसती रही और बस हंसती रही
अचानक से मैंने पूछा
 सालों से रसायनों का ज़हर पीती  हो 
कभी पहले नहीं देखा मास्क लगाये हुए? 
जवाब आता है -अब मेरे अन्दर दो जानें हैं !

 "शिकागोवाली" सुबह से चहक चहक अपनी माँ से 
इस नए जान के बारे में कह रही थी
और उसकी माँ फूले नहीं समा रही थी
पहली  बार जो वो नानी बनने  वाली थी 
बोल रही थी मैं तो नानी बनने का सपना बिलकुल भूल चुकी थी 

पीएचडी की दीर्घता  से व्याकुल होकर 
और मातृत्व इच्छा से आकुल होकर 
"शिकागोवाली" ने कुंवारी माँ बनने का निश्चय किया था 
दिन भर लोग बधाइयां देने आते रहे 
किसी के मन ये सवाल नहीं था 
की बच्चा जायज है नाजायज 
किसी के मन में तिरस्कार नहीं था 
किसी ने नहीं कहा कि "शिकागोवाली" कुलटा है 
सब जानते थे "शिकागोवाली" बहुत नेक, मददगार इंसान है 
सब जानते थे "शिकागोवाली" कुंवारी माँ बन के भी 
वैसी ही नेक और मददगार रहेगी 

और एक तरफ अतीत को वो दृश्य भी याद करता हूँ 
जहां जानबूझकर, अज्ञानतावश या बलात 
जब कोई लड़की कुंवारी गर्भवती हो  जाती है 
तो  उसके नरक जाने की रसीद कट जाती  है 
उसके शील, चरित्र और परिवार की  धज्जियां उड़ती हैं 
बिना ये जाने कि उस कुंवारी लड़की के कोख में बच्चा आया कैसे 
फिर वो दोनों माँ  और बच्चा, आजन्म दाग लिए फिरते है 

बात सही और गलत की नहीं है 
बात है एक ही परिस्थिति को दो नजरिये से देखने की 
दो समाजों के अलग नजरिये की  
 एक तरफ स्वीकार्यता  है और दूसरी तरफ मौत का फरमान 
एक तरफ सब सामन्य है वहीँ दूसरी तरफ भूचाल 

कोठे के अन्दर  देह परोसती हर वेश्या  की कहानी एक नहीं होती 
उसमे भी इंसान होते हैं मेरी और आपकी तरह 
और ये भी सच नहीं की अपना पेट  काटकर जीनेवाला कंजूस  होता है
 शायद  वो अपने बीमार माँ की दवा के पैसे जोड़ता है 
 कुंवारी माँ कामान्धी  कुलटा नहीं होती
परिस्थिति जाने  बिना हम कितनी सहजता से लोगों को  वर्गीकृत करते हैं 

पर ये जानेगा कौन और क्यों ?
जहाँ नयी नवेली ब्याही मुनिया 
मातृत्व की भनक पाते ही 
बंद हो जाती है संकुचित होकर लाज के मारे 
अपनों से भी छुपी रहती है
क्योंकि वो गर्भवती हो गयी है.

(निहार रंजन , सेंट्रल, २८ फ़रवरी २०१३ )

*मामासिता (आकर्षक लड़की)