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Friday, June 21, 2013

चकोर! जान चाँद को

जा चकोर!
फिरते रहो
इस छोर से उस छोर 
विरह वेदना में
बहाते रहो नोर
हर्ष के तर्ष में
करते रहो लोल  खोल
ह्रदय से किलोल

लगाये हो जिससे प्रीत
ठहरा वो दिवा–भीत
पर हुए जो तुम प्रेमांध
हद की सीमायें लांघ
कहाँ तुम्हे हुआ गिला
कहाँ तुम्हे वक़्त मिला
पूछ लेते एक बार
क्यों हुआ वो दागदार

तुम बेकल जिन आस में
वो कहीं भुज-पाश में?
मत जियो कयास में
लाओ कान पास में
मैं सुनाता हूँ तुम्हे
क्या कहा व्यास ने

लेने ब्रम्हा का आशीष
तारा ने झुकाया शीश
पर ब्रम्हा जी भांप गए दुःख
शब्द ये निकला उनके मुख
लज्जा से कांपो ना कन्या
कैसे हुई  तुम विजन्या?
फिर नीति का पाठ पढ़ाकर
व्यभिचार का अर्थ बताकर
स्वर्ग नर्क का भेद सुनाकर 
प्रक्षालन आश्वासन देकर
राजी तारा को कर डाला
तब जा के तारा ने सुनाया
श्वेत चन्द्र का कर्म वो काला 
थी निकली तारा की आह
जिसके थे कितने गवाह 
आत्मा तक हो वो छलनी
बनी भुरुकवा की वो जननी
हुई ना तारा पाप की भागी
चन्द्र बना आजन्म का दागी

आ चकोर!  आ चकोर!
सुना होगा जभी जागो तभी भोर
मेरी नहीं दुश्मनी उससे
मेरी शिकायत है कुछ और
जान कहानी वेदव्यास से
अब तो मोह-भंग कर डालो
हो मुक्त उस आकर्षण से
कल की विपदा से बचा लो
ये मत सोचो ये सब कह कर
क्यों मैं तुम्हे सताता हूँ
नीति की बात पढ़ी थी मैंने
वो मैं तुम्हे बताता हूँ
छलिया को ना अंक भरो
उससे बेहतर तंक मरो

(निहार रंजन, सेंट्रल, १३ जून २०१३) 

नोर = आँसू
लोल = चोंच 
भुरुकवा = सुबह का तारा (बुध)

Friday, March 15, 2013

प्यार की वैज्ञानिक कविता

प्यार की वैज्ञानिक कविता
स्मृति के चुम्बक पर
बारहा लौट आते हो
लौह दिल के मालिक
यास दिए जाते हो

मन नाभिक के पास   
इलेक्ट्रान बने घूमते हो
आतंरिक कक्षा में बने
ना समीप ना दूर होते हो
क्यों मेरे ह्रदय कक्ष में
असीर हुए जाते हो
लौह दिल के मालिक
त्रास दिए जाते हो

अम्ल दग्ध मैं हुई हूँ
क्षार क्षरित मैं जियी हूँ
लवण की है चाह मुझको
लावण्यता समेटी खड़ी हूँ
मन में सान्द्र गंधकाम्ली
तासीर दिए जाते हो
लौह दिल के मालिक
प्यास दिए जाते हो

कब सुनोगे बाबूजी! संभालो
जरा  प्रेम-टीलोमर बचालो
प्यार के इस कोशिका को
एक नया जीवन दिला दो
इस बिरहन राधिके को
पीर दिए जाते हो
लौह दिल के मालिक
रास किये  जाते हो

(निहार रंजन, सेंट्रल, १२ मार्च २०१३)

नाभिक =  Nucleus
आतंरिक कक्षा = Core shell
सान्द्र = Concentrated
गंधकाम्ल = Sulfuric acid  ( Besides being an acid, it is also a strong dehydrant).
टीलोमर = A repeat sequence of DNA bases found  at the chromosomal ends. It gets shortened after every cell division. A cell dies when the  telomere gets really short.
कोशिका = cell.

Saturday, February 23, 2013

ज़िन्दगी के रंग

ज़िन्दगी के रंग 

गाँव के अन्दर, शहर के बीच और देश के बाहर 
कभी ठेस खाकर कभी प्यार पाकर 
ज़िन्दगी की राह पर चलते सँभलते 
कभी लड़खड़ाते , कभी ठीक चलते 
ज़िन्दगी ने जीवन के कई रंग देखने को दिए 
ज़िन्दगी ने बहुत कुछ सीखने को दिए 

घूंघट गिरी थी, वो उठ गयी फिर हट गयी 
लीपा सिन्दूर हटा और फिर ज़ुल्फ़ हट गए 
माँ का दूध हटा , बोतलों ने जगह ली और फोर्मुले आये 
रिश्तों की परिभाषाएं बदली, फूल हावी हो गए ज़िन्दगी में 
अस्तपताल में दम खींचते बाप को एक गुच्छा फूल काफी था सुधि लेने को 
और मैं ठेठ गंवार!  हमने तो बस फूलों को तोडना जाना है 

ना  शादी की रस्में, न उनका प्रयोजन 
कोई जन्म ले  तो ले,  भगवान तो देख ही  लेंगे उसे 
और ज़िन्दगी की रफ़्तार ऐसी तेज़ 
कि ज़िन्दगी दौड़ते-दौड़ते बीच में ही गुम  हो गयी कहीं 
पैकेट  में खाना, एक हाथ में पेय और दूसरा  हाथ स्टीयरिंग पर 
१०० किलोमीटर की रफ़्तार में दौडती ज़िन्दगी 
और तभी कौंध जाता है यादों में  चाँदनी चौक  का वो चाटवाला 
शाहजहाँ रोड का वो तिवारी पान भण्डार 
और खान मार्किट में  बरिस्ता की कॉफ़ी 
परखनलियों में रसायनों का बदलता रंग 
यार दोस्तों का मजमा और बेफिक्री के दिन 
और उससे भी पीछे धान के वो हरे पीले खेत
बैलों के गले की घंटी का बजता वो मधुर संगीत 

पर रफ़्तार की ज़िन्दगी ने ज़िम्मेदारी दी
रफ़्तार की ज़िन्दगी ने आत्मविश्वास दिया 
ज़िन्दगी को उन्मुक्त होकर बहते रहने 
प्यास हरते रहने की तालीम 
कोई ज़िन्दगी पूरी अच्छी नहीं,
कोई ज़िन्दगी बिलकुल बुरी नहीं  
ज़िन्दगी की प्यास तो कभी बुझती नहीं 
ज़िन्दगी अच्छा या बुरा बनाना तो अपने हाथ में है 
धीमे चलकर संतुलन बनाना आसान है 
पर रफ़्तार  में संतुलन बना के चलना एक सीख 

पर जो छूट गया बहुत पीछे वो है  मेरा गाँव
उसकी अलमस्त हवा, रेडियो पर बजता संगीत 
आटे के  मिल की हर शाम वो  पुक-पुक 
और शाम को लौटते बैलों का गले मिला कर चलना  
 स्कूल से लौटने के वक़्त गली के मुहाने पर खड़ी मेरी  माँ 
और हुरदंग मचाते लड़कपन के साथी 
लालटेन की रौशनी में  कीट-पतंगों के साथ ज्ञान अर्जन की जंग
कैलकुलस की  छान बीन में बावन पुस्तिकाओं के रंगे पन्ने 
और अपने पतंगों के लिए  हाथ से मांझा किये धागे 
जीते पूरे पांच सौ कंचे 

और अब वही गाँव की मिटटी, 
जिस का कण-कण मेरे रुधिर होकर बहता है, 
वापस लौट आने को कहती  है
और सेंट्रल साइंस लाइब्रेरी के बाहर का चायवाला
२/३ के लिए पूछता है बार बार 
पर कोसी नदी की घाट से दूर कूपर नदी की घाट बैठ 
मैं कविता लिखता जा रहा हूँ 
मैं कवि  बन गया हूँ!

(निहार रंजन, सेंट्रल, २३ फ़रवरी २०१३  )

प्रिये तुम चलोगी साथ मेरे?



महान निर्देशक गुरु दत्त के फिल्मों का मैं बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ. उनकी मशहूर  फिल्म 'प्यासा' कई बार देखी है.  फिल्म के  आखिरी दृश्य में वो कोठे पर पहुँच वहीदा रहमान को बुलाते हैं और "साथ चलोगी?" प्रश्न के साथ   फिल्म का समापन हो जाता है.  यह  कविता उसी  फिल्म प्यासा के आखिरी दृश्यों प्रेरित है और इस महान कलाकार को समर्पित है.

प्रिये तुम चलोगी साथ मेरे?

उबड़-खाबड़ कंकड़ पत्थर, यही मार्ग का परिचय है
ना पेड़ों की छाया ना पनघट चलो अगर दृढ निश्चय है   

हम नहीं ख्वाब दिखाने वाले इन्द्रलोकी काशानों के
अपनी बगिया में नहीं मिलती खुशबू जूही बागानों के

ना रोशन हैं राहें अपनी, पल पल ही टकराना होगा
गिरते उठते गिरते उठते इस पथ पर तुम्हे जाना होगा   

भूखे प्यासे दिन गुजरेंगे,  भूखी प्यासी रातें होंगी  
तेज हवाएं भीषण गर्जन साथ लिए बरसातें होंगी

जीवन ताप परीक्षा होगी, होगी असलियत की पहचान
निखर कर बाहर निकलोगी गर हो तुम स्वर्ण समान  

अपने हिस्से में कुछ दागदार फूल है, कर दूं अर्पण?
पर अन्दर अथाह प्रेम है, खोलो पट देखो मेरा मन   

इस अनिश्चय के डगर में, चलोगी पकड़ तुम हाथ मेरे ?
आज कह दो तुम प्रिये गर चल सकोगी साथ मेरे

निहार रंजन, सेंट्रल, २-२३-२०१३ 



Sunday, January 20, 2013

पंथ निहारे रखना

पंथ निहारे रखना

छोड़ दो ताने बाने
भूल के राग पुराने
प्रेम सुधा की सरिता
आ जाओ बरसाने

प्रियतम दूर कहाँ हो
किस वन, प्रांतर में  
सौ प्रश्न उमड़ रहे हैं
उद्वेलित मेरे अंतर में

जीवन एक नदी है
जिसमे भँवर हैं आते
जो खुद में समाकर
दूर हमें कर जाते

ये सच है जीवन का  
लघु मिलन दीर्घ विहर है
फिर भी है मन आह्लादित
जब तक गूँजे तेरे स्वर हैं

देखा था जो सपना
वो सपना जीवित है
प्रीत के शीकर पीकर
प्रेम से मन प्लावित है
___________________
....प्रिय पंथ बुहारे रखना
हो देर मगर आऊँगा
वादा जो किया था मैंने  
वो मैं जरूर निभाऊंगा.

(निहार रंजन, सेंट्रल, १-२०-२०१३)


Saturday, December 15, 2012

सच्चा प्यार


प्यार ही हैं दोनों
एक प्यार जिसमे
दो आँखें मिलती  हैं
दो दिल मिलते हैं, धड़कते हैं
नींद भी लुटती है और चैन भी
जीने मरने की कसमें होती हैं
और प्यार का यह दूसरा  रूप
जिसमे न दिल है, ना जान है
ना वासना है, ना लोभ
ना चुपके से मिलने की चाह
ना वादे, ना धडकते दिल
क्योंकि इस प्यार का केंद्र
दिल में नहीं है

क्योंकि इस प्यार का उद्भव
आँखें मिलाने से नहीं होता
इस प्यार का विस्तार
द्विपक्षी संवाद से नहीं होता
ये प्यार एकपक्षीय है
बिलकुल जूनून की तरह
एक सजीव का निर्जीव से प्यार
एक दृश्य का अदृश्य से प्यार
जिसकी खबरें ना मुंडेर पर कौवा लाता है
ना ही बागों में कोयल की गूँज

बस एक धुन सी रहती है सदैव
जैसे एक चित्रकार को अपनी कृति में
रंग भरने का, जीवन भरने का जूनून
ये भी एक प्रेम है, अपनी भक्ति से 
अपनी कला से, अपनी कूची से, अपने भाव से
जैसे मीरा को अप्राप्य श्याम के लिए
नींद गवाने की, खेलने, छेड़ने की चाह

यह प्यार बहुत अनूठा होता है
क्योंकि इसमें इंसानी प्यार की तरह
ना लोभ है , ना स्वार्थ
ना दंभ है, ना हठ
सच्चे प्यार की अजब दास्ताँ होती है
वो प्यार जिसका केंद्रबिंदु दिल नहीं
इंसान की आत्मा होती है
क्योंकि सच्चे प्यार को चाहिए
स्वार्थहीन, सीमाओं से रहित आकाश 
एक स्वछन्द एहसास
और वो बसता है आत्मा में
क्योंकि आत्मा उन्मुक्त है

कुछ पता नहीं चलता कब, कैसे
सच्चा प्यार हो जाए
किसी ख़याल से, किसी परछाई से
किसी रंग से, किसी हवा से
किसी पत्थर से, किसी मूरत से
किसी लक्ष्य से, किसी ज्ञान से  
घंटे की ध्वनि से, उसकी आवृति से
किसी बिछड़े प्रियतम की आकृति से

(निहार रंजन, सेंट्रल, १५-१२-२०१२)

Saturday, December 8, 2012

फिर हो मिलन मधुमास में



फिर हो मिलन मधुमास में

चहुँ ओर कुसुमित यह धरा
कण-कण है सुरभित रस भरा
क्यों जलो तुम भी विरह की आग में
क्यों न कलियाँ और खिलें इस बाग़ में
मैं  ठहरा कब से आकुल, है गगन यह साक्षी
किस मधु में है मद इतना, जो तुझमे मधुराक्षी
दो मिला साँसों को मेरी आज अपनी साँस में 
आ प्रिये फिर हो मिलन मधुमास में

यूथिका के रस में डूबी ये हवाएं मदभरी
हो शीतल सही पर अनल-सम  लग रही
विटप बैठी कोयली छेड़कर यह मधुर तान  
ह्रदय-जलधि के मध्य में उठाती है तूफ़ान
है पूरित यहाँ कब से, हर सुमन के कोष-मरंद
देखूं छवि तुम्हारी अम्लान, करें शुरू प्रेम-द्वन्द
फैलाकर अपनी बाँहें बाँध लो तुम फाँस में
आ प्रिये फिर हो मिलन मधुमास में

ये दूरियां कब तक प्रियवर, क्यों रहे तृषित प्राण
क्यों ना गाओ प्रेमगान और बांटो मधुर मुसक्यान
इस वसुधा पर प्रेम ही ला सकती है वितामस
प्रेम ही वो ज्योत है जो मिटा सके अमावस
हो चुकी है सांझ प्रियतम झींगुरों की सुन तुमुल
आ लुटा रसधार सारी जो समाये हो विपुल
दो वचन चिर-मिलन का आदि, अंत, विनाश में
आ प्रिये फिर हो मिलन मधुमास में

(निहार रंजन, सेंट्रल, ८-१२-२०१२)



फोटो: यह चित्र मित्र डॉ मयंक मयूख साहब ने  न्यू मेक्सिको के उद्यान में कुछ दिन पहले लिया था. यही चित्र इस कविता का मौजू भी है और कविता की आत्मा भी. यह कविता मित्र मयंक के नाम करता हूँ.  
http://www.facebook.com/photo.php?fbid=10101379587252982&set=a.10101370240478992.2935147.10132655&type=3&theater
http://www.facebook.com/photo.php?fbid=10101381732483922&set=a.10101370240478992.2935147.10132655&type=3&theater

Saturday, November 24, 2012

विरहगान


बैरी रैन काटी नहीं जाय ,एक अजीब उलझन सी लागे
मैं तरसूँ रह-रह आस तोहारे, निश सारी डरन सी लागे

बाग़ ना सोहे मोहे बलमा ,बिन रंग लागे सारी बगिया
मैं बिरहन तड़पूँ तोहे पाने, हिय मोर जलन सी लागे

किसे पीर कहूँ मन माही, कोई अपना सा नहीं लागे
प्रीत की बातें हलक ना उतरे, दुनिया बंधन सी लागे

बादल जब से घिर आयो है, मोरी तपिश और बढ़ायो है 
झड़ झड़ गिरती इन बूँदों से, मोहे आज दहन सी लागे

भाये ना मुझको जूही वेणी, भाये ना मुझको चूड़ी कंगना
सौ सुख पा के रहूँ अधूरी,  कछु नहीं सजन सी लागे

बैठी हूँ आस तुम्हारी लिए, जब चाहो आ जाओ मिलने
जब तक तुम रहते मेरे मन में, धरती उपवन सी लागे

हाँ देर से आती है लेकिन, मन का विषाद उतरे गहरी
पसरे विष फिर उर अंतर में, ज्यों सांप डसन सी लागे

मैं ना भजति ईश्वर को, जो तुम ही  मेरे मन बसते
रटती रहती नित तोर नाम, मुझे वही भजन सी लागे

(निहार रंजन २७-९ २०१२)

Tuesday, November 20, 2012

अनबुझ प्यास



मैं प्यासा बैठा रहा
बरगद के नीचे 
तुम्हारे  इंतज़ार में

हवा आयी, और जुगनुओं का झुण्ड
इस विभावरी रात में सोचा था
तुम्हे आते देखूंगा, तुम्हारी हर डग को  
तुम्हारे पायल की हर रुनक झुनक सुनूंगा
किसी विस्मय की आशा नहीं थी
एक प्यास थी, प्यास होठों की नहीं
वो प्यास जो आत्मा में जगती है
आत्मा में बसती है, आत्मा में बुझती है

रात बढती गयी,
चाँदनी और शीतल
विभावरीश और तेजोमय  
निशाचर पहर का वक़्त आ चुका था
तुम्हारी आने की आस अब भी आस ही थी
डर भी ... उस पापी झिमला मल्लाह का .

सुबह का वक़्त होने को आया है
पर अब भी वही आस, अब भी वही प्यास
होठों की प्यास बुझ जाए शायद
पूरी चार बूँदें दिख रही हैं पत्ते पर
दो ओस की और दो नेह की
पर आत्मा ...........?

(निहार रंजन, सेंट्रल, १९-११-२०१२ )

Sunday, November 11, 2012

माँ से दूर



फैला के अपना दामन ड्योढ़ी के मुहाने पर
बैठ जाती है हर रोज़ मेरे आमद की आस लिए
अपने तनय की पदचाप सुनने कहती हवाओं से
जल्दी पश्चिम से आ जाओ खबर कोई ख़ास लिए
हवाओं से ही चुम्बन दे जाती है मुझे
माँ बुलाती है मुझे 

स्मृति में समायी शैशव की हर छोटी बातें
वो कुल्फी वाला, और दो चवन्नी की मिन्नतें   
अब कोई नहीं कहता, मुझे दो संतरे की यह फाँक
अब कोई नहीं कहता, कमीज़ की बटन दो तुम टांक
चिढ की बातें तब की, अब रुलाती है उसे
माँ बुलाती है मुझे    

यह जगत विस्तीर्ण, ये नभ ये तारे
नहीं मेरी दुनिया, जिसमे विचरते सारे
जो मेरी संसृति है तुझमे, आदि और अंत
तुझसे बिछड़ हो गया हूँ पुष्प बिन मरंद
तुमसे सानिध्य की चिंता, है सताती मुझे
माँ बुलाती है है मुझे

(निहार रंजन, सेंट्रल, ०९-११-२०१२ )

Sunday, August 5, 2012

मिटटी मेरी पुकारे


कितने बीते मनभावन सावन
कितनी जली होलिका, रावण
पर हाय  तपस्या में हर क्षण
विकल प्रतिपल अकुलाता मन
जीता  बस  यादों के सहारे 
आरे आरे आरे , मिटटी मेरी पुकारे


जीवन की आपाधापी में
कैसे रखूँ खुद को हर्षित
कुसुम प्राप्ति की अभिलाषा में
तन अर्पित , जीवन अर्पित
कब तक अब यूँ मन मारें 
आरे आरे आरे , मिटटी मेरी पुकारे 

कोसी धारा, मिथिला की धरा
जिस पर मेरा शैशव गुजरा
मिले राह में दुःख-सुख
बदला जीवन में हर कुछ
पर उस धरा के हम आज भी दुलारे
आरे आरे आरे , मिटटी मेरी पुकारे 

जब मन विचलित हो जाता है
मिटटी की याद सताती है
तज देता  प्राण जब तन को
बस मिटटी ही अपनाती है
अब छोड़ दुनिया के झंझट सारे 
आरे आरे आरे , मिटटी मेरी पुकारे 

(निहार रंजन ५-५-२०१२)