Friday, September 11, 2015

निशागीत

मन उद्भ्रांत है, सब शांत है
रात का एकांत है

हरसिंगार का पेड़ है
कायर है चाँद
सुप्त है, लुप्त है
किसी कारण से गुप्त है
रात का एकांत है
घना तिमिर है
सब शांत है
कायर है चाँद
किसी और चाहना में,
वासना में असीर
अनिश्चित, अधीर
रात के एकांत में
गाता हूँ निशागीत

सोचता हूँ  अक्सर
मेरे सर पर है जो ऋण
कब हो सकूँगा उससे उऋण
मैं अपनी वासना का गुलाम
कब लौटा पाऊंगा अपने स्वेद का बूँद मात्र
अपनी माँ के लिए,
अपनी मिटटी के लिए
कब हो पाऊंगा मैं स्वामी अपनी वासना का
अपनी झोपड़ी के धुंधले प्रकाश में
रात के एकांत में

मैं अक्सर सोचता हूँ
रात के एकांत में
अपने बनाये चक्रव्यूह में मनुष्य
एक छद्म विभासा, एक कप्लना-कुवेल की आभा
मन में स्थापित किये
रात के एकांत में
चलता हुआ आ जाता कुम्भिपाकी-कीच में
रति-रंजित, उन्मादित
विस्मृत कर जीवन के वे क्षण
जो ऋण के, विश्वास के थे
और आ ठहरता है
अपने मन-मदन की तलाश में
पिया के पास में, पाश में
कहते हुए मैं कृतहस्त
मैं परिस्थिति विवश
मैं आधुनिक
मैं क्षन्तव्य
गढ़ता हूँ जीवन की नयी परिभाषाएं
और सारा ऋण पीकर
चाहता हूँ दंड न्यून
चाहता हूँ हो स्वयं पर
सदा आलोकित स्यून
रात के एकांत में

(ओंकारनाथ मिश्र, खजुराहो, ५ सितम्बर २०१५ )

Friday, September 4, 2015

ह्रदय-राग

 प्रातः नियमानुसार,
मंदिर की घंटी मस्जिद में छनती है
फिर सीधे मेरे कानों में आकर बजती है
और रातों को झींगुर बहुत देर तक कहते हैं
साहब! यहीं कहीं तानसेन अभी भी रहते हैं 
और एक लड़की को, बस देखते रहने का जूनून हैं
शायद इसी में उसे सुकून है ( क्यों हैं?)
यह शहर है या शहर-सा  है?
पर प्रश्न कुछ कोई और मन बसा है
कि सावन के झूले मज़बूत दरख्तों पर क्यों लगते हैं ?
उनकी आँखों में स्वर्ग-लोक के सपने क्यों बसते हैं?
साठ वर्षों तक भोग करके रोग से परिक्षत शरीर पर
वेश्याओं के बढ़े हाथों से घिन आती है (क्यों आती हैं?)
सोग होता है, फिर योग होता है
मूलबंद, जालंधर बंद, अग्निसार
सारे कुकर्मों का यही उपचार
ऊपर मन में मैल, नीचे शंखप्रक्षालन  
यहाँ शिव-शिव-शिव, वहां मिस रॉजर्स से लालन
मैं बस इतना पूछता हूँ कि रात के एकांत में
जब तन निढाल होता है
क्या अपनी आत्मा से सबका सवाल होता है?
कि झिलमिल रंगीनियों के इस खेल में
इन्द्रालय आकर क्यों जाती है इंद्राणी जेल में ?
रात भर श्वान भूकते हैं
हम क्या सुनने से चूकते हैं?

(निहार रंजन, ग्वालियर, २९ अगस्त २०१५)

Monday, August 31, 2015

प्यास

मैंने उस छोर पर देखा था
विशाल जलराशि
और पास आकर देखा तो सब मृगजल था
सब रेगिस्तान था
मकानों में लोग थे, हवस और शान्ति थी
वातायन था, झूठ था, जीवन था
लेकिन मेरा दम घुट रहा था
और कुछ लोगों से मुझसे कह दिया था
“माँ रेवा! तेरा पानी निर्मल’’
मैं भागता नर्मदा के पास चला आया
दुर्गावती की निशानियाँ धूल बन रही थी
फिर पानी का गिलास उठाकर 
ज्ञात हुआ इसमें जहर है
मैं यहाँ भी प्यासा रह गया
उस छोर पर पानी बिन प्यास
इस छोर  पर पानी संग प्यास
और जीवन दो प्रेयसियों के प्यास में
सद्क्षण डूबा रहता हैं
वहां जाता हूँ तो इसकी याद आती है
यहाँ आता तो उसकी विरह में डूब जाता हूँ
प्रेम सच में ‘बुरी चीज’ है
इसमें आग है, प्यास है, पानी है
जोश है, रवानी है
शूल है, कटार है
और क्या-क्या हथियार है
इसमें डूबकर भी रहा नहीं जाता
और डूबे बिना भी रहा नहीं जाता.
यह जीवन इसी के संग
एक मटकती हुई तारका की तरह
चलती जाती है, चलती जाती है
और हम और आप बस देखते जाते हैं


ओंकारनाथ मिश्र, जबलपुर, २४ अगस्त २०१५)

Monday, July 27, 2015

एक रुदाद

सर कलम करके वो आये हाथ अपने धो लिए
था लिखा रोना हमारे भाग में हम रो लिए

कह रहे थे सबसे वो करते हुए ज़िक्र-ए-रहम
तुम मनाओ खैर लेना चार था हम दो लिए

साक्ष्य भी था रक्त भी, सिसकी, किलोलें, सब के सब
जांच में पर थी सियासत सब के सब ही खो लिए

है शिकायत हाथ में जायें मगर हम किसके पास
वक्त का एक बोझ है कहकर अभी हम ढो लिए

पट्टी जिनके आँख पर हाथों तराजू जिनके है
मुख खुलेगा उनका जब तक कितने रुखसत हो लिए

हम गरीबों की सदायें शायद जगेंगी एक दिन
सोचते ही सोचते लो आज भी हम सो लिए

(ओंकारनाथ मिश्र, हरिद्वार, २० जुलाई २०१५)

Tuesday, July 7, 2015

दो बूदों के बाद


मानसूनी खेतों की हरीतिमा देखकर
जब मेरा मन पुलकित होकर झूम उठता है
तो मैं सोचता हूँकि हमारे किसानों का मन कितना झूमता होगा

वो किसान; जिनके लिए इसी हरियाली में सारी खुशहाली है
जिनके लिए इसी हरियाली में सारा स्वप्न है
जिनके लिए इसी हरियाली में बेटी की शादी है
जिनके लिए इसी हरियाली में बेटे की चिंता है
जिनके लिए इसी  हरियाली में जोरू के मुस्कान का जरिया है
जिनके लिए इसी हरियाली में भूत को विस्मृत कर भविष्य का रास्ता है
और इतनी कठिन मिहनत के बाद दो पल सुस्ताने की मोहलत है
उनके कर-नमन के लिए हमारे लिए दो पल है?

जो चटोरे; साँवरिया चिकन, चलुपा, पैड थाई और बिरयानी के दीवाने हैं
वो शायद ही सोचते हैं कितना पसीना बहाते हैं मिटटी के दीवाने
तो मिलता है हमें अनाज और उदर को शान्ति
मुझे ऐसे दीवानों से
जो मिट्टी के लिए जीते हैं, मिट्टी में जीते है
और अपनी मिट्टी के लिए ही मरते हैं;
बहुत प्रेम है
प्रेम हैबहुत-बहुत


(ओंकारनाथ मिश्र, कानपुर, ४ जुलाई २०१५) 

Monday, June 29, 2015

एक साँप के प्रति

बात बस इतनी सी थी
कि उसने अपनी टाँगे मेरे टाँगों पर रख दी थी
और सोचा था
कि जैसे नदी ने अपने में आकाश भर रखा है
जैसे एक ऑक्टोपस ने एक मछली का सर्वांग दबा रखा है
वैसे एक सांप और सेब के गिरफ्त में सारी पृथ्वी है

मैंने कई बार चाहा है कि मुझे एक पवित्र सांप मिले
एक पवित्र सांपजो चुपके से आये और कुछ पावन कर जाए
पावन, अति-पावन
लेकिन सदियों से
मुझे, या भाई अमीरचंद फोतेदार
या व्रुनी, या डग विलियम्सन, या शैनन डिमेनिया
को वो सांप नहीं मिलता है
(अब राजा जनमेजय नहीं है तो कोई करता है नाग-यज्ञ?)
मिलता है
एक तक्षक सांप  
मिलता है मुझे रिश्वत
मिलता है मुझे विष
(कहाँ गए नील कंठ?)
और एक काला सांप
काला सांप और
सेब
जिसे मैं मजे से खता हूँ
सेब खाते ही सारा फ्रक्टोज और सुक्रोज घुलकर
मुझे नींद की आगोश  में ले लेता है
और साँप बैठा रह जाता है 

मैं अक्सर सोचता हूँ कि
मुनि आस्तिक इतने दयालु नहीं होते कि
मुझे या मेगन कैम्पबेल को
यूरोप, अफ्रीका या ऑस्ट्रेलिया के लोगों को
या जंगल में चल रहे पथिकों को सांप का भय नहीं होता
लेकिन जानता हूँ कि
सांप और सृष्टि की इस कथा में
ना सांप से पृथक यह सृष्टि है
ना सृष्टि से पृथक कोई सांप है

(ओंकारनाथ मिश्र, गोपाचल पर्वत, २६ जून २०१५)



Saturday, May 30, 2015

स्वप्न जुगुप्सा

आह! अगर सांत होती वह नांत कथा

झाँक रहा था सूक्ष्म विवरों से
स्वप्न लोक का पुनीत प्रकाश
यहाँ आस, वहां भास, किलकारियां, अट्टाहास
धत! वह स्वप्न लोक, यहाँ पीव, वहां मवाद
न गौतम, न अहिल्या, ना सावित्री, ना सत्यवान
पुंश्चली (ये भी कोई शब्द है?) ही पुंश्चली,
करें तो किसका आह्वान
किलकारियां, अट्टाहास और पुनीत प्रकाश
एक नरपिशाच, दो नरपिशाच, तीन नरपिशाच
(गंदे पनाले के पार)
नरपिशाच ही नरपिशाच, संभोग के आदि-आसन में
लेकिन गौतम कोई नहीं, कोई ‘पाषाण-उत्थान’ नहीं
वहां भी शशि,
कृष्णपक्ष से संत्रस्त
चपल, किये युग्मित हस्त
शशि थी वो, चाहती थी आभा
आई घूंघट के पट खोल
दिनेश ने कहा बिन पीटे ढोल
दिगम्बरी बोल!
बोल दिगम्बरी बोल!

और यियासा लिए प्यासा
कह उठा कि प्राणमणि!
उम्र भर प्यासा रहूँगा
लेकिन
रक्त के लिए, देह के लिए, अणु-आयुध के लिए
प्यास भी कोई प्यास है?
इसी तरह परिधि-परिक्रमा करते मिला ना कोई केंद्र
यूँ तश्नालब रहे जैसे मूमल-महेंद्र

आह! अगर सांत होती वह नांत कथा


(ओंकारनाथ मिश्र, बनगांव, ३० मई  २०१५ )

Friday, April 10, 2015

तुम हड्डियाँ चबाओ

जो बिलखते हैं उन्हें और बिलखाओ
मगर मेरे दोस्त! तुम हड्डियाँ चबाओ

यहाँ जगत की उर्वशियाँ और सबके कुबेर
कोई आधा-पौने नहीं, सब सेर सवा सेर
किसकी आत्मा? किसकी करुणा? किसकी किस्मत का फेर ?
यौवन के उफान पर फिर मूंछ लो टेर
‘रिब्स’ पर ‘बारबेक्यू’ न सही ‘बफैलो’ ही लगाओ
मगर मेरे दोस्त! तुम हड्डियाँ चबाओ

क्या है मृत्यु, क्या है जीवन, क्या लवण है?
कौन सीता, कौन शंकर? क्या भजन है?
किसकी गंगा, क्यों हिमालय से लगन है?
क्या कहीं हिन्दोस्तां भी एक वतन है?
इस मध्यपूर्वी हुक्के का एक कश और चढाओ
मगर मेरे दोस्त! तुम हड्डियाँ चबाओ

वासना सागर है, तो डुबकी लगाओ
हाथ मारो, पैर मारो, पार पाओ
दूध किसका? क्यों किसी को तुम चुकाओ
चुक ना जाए तेल, क्यों दीया जलाओ
कामिनी के रागिनी में राग लाओ
और मेरे दोस्त! तुम हड्डियाँ चबाओ

क्यों लटक है, क्यों झटक है, क्यों मटक है
चक्षु खोलो, यहाँ भी उट्ठापटक है
गोलियां है, गालियाँ है और चमक है
और तुम्हारी ग्रीवा में लचके-लचक है
आह! अपनी कमरिया भी मत लचकाओ
अभी मेरे दोस्त! तुम हड्डियाँ चबाओ

क्या वहां पर रात थी? न था सवेरा?
क्या खड़े है राक्षस वहां डाल डेरा?
फिर स्वजन के तंबू क्यों? क्यों है बसेरा
भीतचारी, क्यों है तुमने खुद को घेरा
जाओ कभी तिमिर में अलख जगाओ
तभी मेरे दोस्त! तुम हड्डियाँ चबाओ

सारा अपना छोड़ दो पर रंग अपना
माला जपना छोड़ दो पर ढंग अपना
मुख-विशाला, मगर हिरदय तंग अपना
आह उट्ठे! तो उठाओ संग अपना
संगसारी में यूँ ही कीर्ति बढाओ
मगर मेरे दोस्त! तुम हड्डियाँ चबाओ

शीश देकर हँस रहा था वो सिपाही
मगर क्रंदन-लिप्त हो तुम कुसुमराही
यश भी लूटो, लूट लो तुम वाहवाही
हे उदर-लंबो! महाग्राहों के ग्राही
ठहर जाओ, बुभुक्षा की थाह पाओ
आदतन मेरे दोस्त! तुम ना हड्डियाँ चबाओ

(निहार रंजन, ऑर्चर्ड स्ट्रीट, १० अप्रैल २०१५ )

Friday, March 27, 2015

कुसुम की असमर्थता

ले मृदा से खनिज पोषण
पौध बढ़ता जा रहा था
शाख धर नव, पर्ण धर नव
सबकी दृष्टि, भा रहा था

और बसंती पवन ने
आते ना जाने क्या किया था
स्पर्श कर हर वृन्त को  
कलियों से दामन भर दिया था

कसमसा उठी थी शिरायें
फूट खुली थी सारी कलियाँ
आने वाला पुष्प नया है
चर्चे फैले गलियाँ-गलियाँ

दो पल ही बीते थे शायद
खिला पुष्प खिलखिला रहा था
मद्धिम समीर के संग-संग ही 
अपना सौरभ मिला रहा था 

तो फिर क्या था, मचले भौंरे
सारा उसका रस पाने पाने को
सटते, छूते, पीते, पाते
मादक होकर, फिर गाने को

रूप  ही उसका था कुछ ऐसा
इतने तक ही बात नहीं थी
सोच रही थी एक पुजारिन 
क्यों वो उसके हाथ नहीं थी

क्षुब्ध हो गया पुष्प सोचते!
है कैसा प्रारब्ध लिखित यह प्रोष?
निर्माता से चूक हुई या
है रसचोषी का ही कोई दोष?

पुष्प ने ऐसा कब चाहा है  
सबको इतना मैं ललचाऊँ
जो आये होश गँवा बैठे
फिर किसी गले जा इतराऊं 

 इतना भी भाग्य नहीं उसको
फूले-फैले जननी संग ही
जब समय बिखरने का आये
बिखरे भी वो अपने ढंग ही

क्या खेल रचा तूने बिधना
भव के चहुँदिश विस्तार में
पहले उड़ेल दिया जीवन
फिर व्यथा भरा संसार में


(ओंकारनाथ मिश्र, ईजली, २७ मार्च २०१५)